Thursday, June 27, 2019

क्या वोट डालते समय किसान अपने ही मुद्दों से भटक जाते हैं?

पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र के साथ समूचे देश में बड़े-बड़े किसान आंदोलन हुए.
उनकी प्रमुख मांग थी कि दूध, गन्ना और बाकी फसलों को उचित समर्थन मूल्य मिले.
लोकसभा चुनावों में खेती का मुद्दा कितना अहम था, ये पूछने पर सिर्फ़ 5 प्रतिशत किसानों को यह मुद्दा अहम लगा. सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसाइटीज़ (CSDS) के सर्वे में ये बात सामने आई है.
महाराष्ट्र में खेती की समस्या ने गंभीर रूप धारण कर लिया है. पानी ना होने के कारण राज्य सरकार ने अकाल घोषित किया है.
वहीं, दूसरी ओर गन्ना, प्याज़ और बाकी फसलों की पैदावार ज़्यादा होने से उन्हे उचित दाम नहीं मिल रहा है.
इस सर्वे के मुताबिक किसानों को विकास का मुद्दा सबसे अहम (15%) लगा. दूसरे नंबर पर रहा बेरोज़गारी का मुद्दा था.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में हुए किसान आंदोलनों को देखते हुए किसान नेता और स्वाभिमानी शेतकरी पार्टी के अध्यक्ष राजू शेट्टी ने एनडीए सरकार पर खेती के विकास के लिए काम ना करने का आरोप लगाते हुए यूपीए का दामन थामा.
मुंबई और दिल्ली दोनों जगह आंदोलन करने के बाद भी उन्हें लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा.
किसानों के हक़ के लिए लड़ने वाले 'किसान नेता' की पहचान रखने वाले राजू शेट्टी को किसानों ने ही नकार दिया.
दूसरा उदाहरण है जिवा पांडू गावित का. नासिक से मुंबई तक किसान लॉन्ग मार्च के आयोजन में गावित ने महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभाई थी.
उन्होंने इस बार दिंडोरी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ा. लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा.
जबकि उन्होंने आदिवासी किसानों को वनाधिकार दिलाने के लिए कई आंदोलन किए हैं.
यवतमाल-वाशिम लोकसभा चुनाव क्षेत्र से वैशाली येडे चुनावी मैदान में उतरी थीं.
उनके किसान पति ने खेती का कर्ज़ा ना चुका पाने की वजह से आत्महत्या की थी. वैशाली को सिर्फ 20,000 वोट मिले.
दो साल पहले मध्य प्रदेश के मंदसौर ज़िले में पुलिस की गोलीबारी में दो किसानों की मृत्यु के बाद उग्र आंदोलन हुआ. लेकिन इस निर्वाचन क्षेत्र से भी भाजपा प्रत्याशी को ही जीत मिली.
पंजाब में वीरपाल कौर के किसान पति ने भी आत्महत्या की थी. वीरपाल कौर भटिंडा से चुनाव लड़ रहीं थीं. यहां लगभग 6482 किसानों ने आत्महत्या की है.
लेकिन वीरपाल को सिर्फ़ 2,078 (0.17%) वोट मिले. वोटों के आंकडे़ देखकर साफ ज़ाहिर होता है कि जितने किसानों ने आत्महत्या की है, उनके परिजनों ने भी वीरपाल कौर को वोट नहीं दिया.
अहमदाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सार्थक बागची कहते हैं, "लोकसभा चुनाव प्रचार 'रफाल घोटाला' और 'चौकीदार चोर है' बस यहीं तक सीमित था. किसानों की समस्या का मुद्दा विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर पूरे दमखम के साथ उठाया ही नहीं,"
बागची बताते हैं, "राष्ट्रीय स्तर पर केवल मोदी विरोध 'anti Modi' मुद्दे को तवज्जो दी गई. ग्रामीण इलाकों में फसलों के लिए पानी ना होने के कारण और फसलों को दाम ना मिलने के कारण किसानों में नाराजगी थी. 'किसान आंदोलन' में भी किसानों का गुस्सा दिखा. लेकिन विपक्षी दल किसानों की इस नाराज़गी के मुद्दे को भुना नहीं पाए."
डॉ. स्वामिनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करने का आश्वासन दिया गया. लेकिन इस बार काँग्रेस ने खेती का मुद्दा केवल चुनावी घोषणापत्र तक ही सीमित रखा.
प्रॉ. बागची कहते हैं, "काँग्रेस ने 'न्याय योजना' लाने की बात कही थी. इस योजना के माध्यम से गरीब परिवार को हर महीने 6 हजार रुपये देने का वादा भी किया था. लेकिन मोदी के पुलवामा हमला, बालाकोट हवाई हमला इन प्रखर राष्ट्रवादी मुद्दों के सामने काँग्रेस की 'न्याय योजना' टिक नहीं पाई."
वह कहते हैं, "किसान जब वोट देता है तो क्या उस वक्त वो खेती के मुद्दों को ध्यान में नहीं रखता? क्या वो राष्ट्रभक्ति, धार्मिक या जाति के आधार पर वोट देता है?, इसकी पड़ताल करनी चाहिए."
अगर महाराष्ट्र की बात करें तो इस साल यहां पानी की किल्लत की वजह से सिर्फ़ किसानी ही नहीं बल्कि पीने के पानी का संकट भी गहराया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पूरे राज्य में इस वक्त 6 हज़ार टैंकरों से पानी की आपूर्ति हो रही है. इसके बावजूद अकाल का मुद्दा लोकसभा चुनाव का केंद्र नहीं बन पाया.
कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बताते हैं, "इस बार के चुनाव काफी अलग थे. राष्ट्रवाद, मजबूत प्रधानमंत्री, पाकिस्तान को सबक सिखाने वाला नेता, ऐसे बेवजह के मुद्दों पर चुनाव लड़ा गया."
वह कहते हैं, "किसानों को बताया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा खेती के मुद्दे से ज्यादा बड़ा है. उसके लिए राजनीतिक प्रचार और मीडिया का पूरा पूरा इस्तेमाल किया गया. मीडिया ने भी किसानी के मुद्दे को जगह नहीं दी. इस चुनाव में मीडिया की भूमिका बेहद निराशापूर्ण रही."
शर्मा बताते है, "इसका ये मतलब नहीं कि खेती के मुद्दे चुनावी मुद्दे बनते नहीं है. इससे पहले हिंदी पट्टी में हुए विधानसभा चुनावों में खेती के मुद्दों की गूंज सुनाई दी और उसने सत्तारूढ़ दल को सरकार से हटाया है."
1972 के महाराष्ट्र विधानसभा सत्र में अकाल पर चर्चा होती थी, तब गणपतराव देशमुख, अहिल्याबाई रांगणेकर और मृणाल गोरे जैसे दिग्गज नेता तत्कालीन सीएम वसंतराव नाईक के पसीने छुडवा देते थे.
इन वरिष्ठ नेताओं में से एक गणपतराव देशमुख ने बीबीसी मराठी ने बातचीत की. वह कहते हैं, "साल 1972-73 में पीने के पानी से ज्यादा खाद्यान्न की कमी थी. उस वक्त राशन से लोगों को पर्याप्त खाद्यान्न मिल सके, उन्हें रोजगार मिल सके, इसलिए हम लगातार सीएम वसंतराव नाईक के संपर्क में थे."
"हमारी कोशिश से साल 1973 में 55 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराया गया. उस वक्त 3 रुपये प्रतिदिन वेतन मिलता था और इस काम के लिए 225 करोड़ रुपये दिए गए थे."
आज की स्थिति की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए गणपतराव देशमुख कहते हैं कि आज के हालात भीषण है. इसलिए वक्त रहते उचित कदम उठाने होंगे.
वह कहते हैं, "इस बार का (2019) अकाल पानी का अकाल है. इंसानों को और जानवरों को पीने का पानी मिलना भी मुश्किल हो गया है. राज्य में 6 हजार टैंकर्स पानी सप्लाई कर रहे हैं. इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार से सवाल करने चाहिए."

No comments:

Post a Comment